अंतिम गाथा सम्राट राजा विक्रमादित्य और उनके स्वर्ण सिंहासन बत्तीसी की।


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राजा विक्रमादित्य के जीवन का परिचय:–
 हमारे लिए बड़े ही शर्म की बात है, कि जिन्होंने भारत को सोने की चिड़िया बनाया था। वे थे सम्राट राजा विक्रमादित्य लेकिन आज जिनके बारे में देश को लगभग शून्य बराबर ज्ञान है,  विक्रम संवत के अनुसार राजा विक्रमादित्य आज से लगभग 2289 वर्ष पूर्व हुए थे। नाबोवाहन के पुत्र राजा गंधर्वसेन भी चक्रवर्ती सम्राट थे। तो आपको अधिक जानकारी के लिए बता दूं की, भारत में चक्रवर्ती सम्राट उसे कहा जाता है, जिसका राज संपूर्ण भारत में रहा हो। 

ऋषभदेव के पुत्र राजा भरत पहले चक्रवर्ती सम्राट थे, जिनके नाम पर ही इस अजनाभखंड का नाम भारत पड़ा। इसी प्रकार से उज्जैन के सम्राट राजा विक्रमादित्य भी चक्रवर्ती सम्राट थे। विक्रमादित्य का असली नाम विक्रम सेन था। हमने और आपने जो बचपन में टेलीविजन सीरियल में विक्रम वेताल और सिंहासन बत्तीसी की कहानियां देखी,सुनी या पढ़ी थी वह महान सम्राट राजा विक्रमादित्य से ही जुड़ी हुई थी।

राजा विक्रमादित्य की माता बहन और भाई का नाम क्या था?


विक्रम की माता का नाम सौम्यदर्शना था, जिन्हें वीरमती और मदनरेखा भी कहते थे। उनकी एक बहन थी जिसे मैनावती कहते थे। और उनके भाई भर्तृहरि के अलावा और अन्य भी थे।


अंतिम गाथा।

राजा विक्रमादित्य के स्वर्ण सिंहासन की अंतिम यानी बत्तीसवीं पुतली का नाम था रानी रूपवती | और जब बत्तीसवें दिन रानी रूपवती ने राजा भोज को स्वर्ण सिंहासन पर बैठने की कोई रुचि नहीं दिखाते हुए देखा तो उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। और तब रानी रूपवती ने यह जानना चाहा कि राजा भोज में आज वो पहले वाली व्यग्रता क्यों नहीं दिखाई दे रही है । 


इस बात को पूछने पर राजा भोज ने रानी रूपवती से यह कहा कि राजा विक्रमादित्य के देवताओं वाले गुणों की कथाएँ सुनकर उन्हें ऐसा लगा कि इतनी विशेषताएँ एक मनुष्य में हो पाना नामुमकिन हैं, और वो यह भी मानते हैं, कि राजा विक्रमादित्य की तुलना में उनमें बहुत सारे दुर्गुण हैं । इसलिए उन्होंने सोचा है, कि इस स्वर्ण सिंहासन को फिर वैसे ही उस स्थान पर गड़वा देंगे जहाँ से इसे निकाला गया है ।

राजा भोज का परिचय:– परमारवंशीय के राजाओं ने मालवा के एक नगर धार को अपनी राजधानी बनाकर 8वीं शताब्दी से लेकर 14वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक राज्य किया था। और उनके ही वंश में हुए परमार वंश के सबसे महान और अधिपति महाराजा भोज ने धार में 1000 ईसवीं से लेकर 1055 ईसवीं तक शासन किया।


महाराजा भोज से संबंधित 1010 से 1055 ईस्वी तक के कई ताम्रपत्र, शिलालेख और मूर्तिलेख प्राप्त हैं। भोज के साम्राज्य के अंतर्गत मालवा,भिलसा, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, कोंकण, खानदेश, चित्तौड़ एवं गोदावरी घाटी का कुछ भाग भी शामिल था। उन्होंने उज्जैन की जगह धार को अपनी नई राजधानी बनाया। राजा भोज को उनके कार्यों के कारण उन्हें 'नवसाहसाक' अर्थात् 'नव विक्रमादित्य' भी कहा जाने लगा।

सिंहासन बत्तीसी की रचना का पूर्ण इतिहास।


मूल रूप से अगर देखा जाए तो सिंहासन बत्तीसी संस्कृत की ही एक रचना मानी जाती है। वास्तव में सिंहासन द्वात्रिंशति का ही हिन्दी में रूपांतर सिंहासन बत्तीसी है, जिसे संस्कृत में द्वात्रिंशत्पुत्तलिका के नाम से भी जाना जाता है। और अगर प्राचीन ग्रंथों के अनुसार माने तो संस्कृत में भी इसके मुख्यतः दो संस्करण पाए जाते हैं। 


पहले संस्करण को उत्तरी संस्करण के नाम से भी जाना जाता है, जो की “सिंहासनद्वात्रिंशति” के नाम से प्रसिद्ध है। और....

दूसरा संस्करण जिसे दक्षिणी संस्करण के नाम से भी जाना जाता है, जो की “विक्रमचरित” के नाम से उपलब्ध है। 


पहले संस्करण के रचयिता श्री. क्षेमेन्द्र मुनि कहे जाते हैं। जिसे बंगाल की संस्कृति में भट्टराव के द्वारा प्रस्तुत संस्करण के समरूप माना जाता है। हांलाकि इसका दक्षिणी रूप ही विश्व में अधिक लोकप्रिय हुआ।


पूरे विश्व में सिंहासन बत्तीसी की लोकप्रियता बेमिसाल है। 


प्राचीन भारतीय साहित्य में सिंहासन बत्तीसी भी वेताल पच्चीसी या वेतालपंचविंशति की भांति बहुत ही  लोकप्रिय हुआ। भारतीय लोकभाषाओं में इसके अनुवाद बहुत पहले से ही होते रहे हैं, और यह साहित्य अपने आपमें और पौराणिक कथाओं का अत्यंत रोचक साहित्य माना जाता है। 

वैसे तो हमेशा से जानकारी के अनुसार यही माना जाता है, कि इन कथाओं की रचना “वेतालपंचविंशति” या “वेताल पच्चीसी” के बाद हुई है।  लेकिन निश्चित रूप से इनके रचनाकाल के बारे में कुछ भी सही–सही रूप से नहीं कहा जा सकता है। कुछ लोग तो यह भी मानते हैं, कि यह जो कथा राजा चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के बारे में है, जो कि गुप्त वंश के महान सम्राट थे। किन्तु यह बात सत्य नहीं है। क्यों की दोनों सम्राटों के कालखंड के बीच में कम से कम 300 वर्षों का अंतर रहा है।


सिंहासन बत्तीसी की अंतिम कथा में क्या था। 


सिंहासन बत्तीसी का जो मुख्य संस्करण है, उसमें अंतिम कथा यहीं तक वर्णित है | लेकिन धरती में समाने के बाद उस रहस्यमय स्वर्ण सिंहासन का क्या हुआ, क्या फिर कभी वो किसी को प्राप्त हुआ, वो बत्तीस पुतलियाँ कौन थीं और उस अद्भुत सिंहासन से कैसे जुड़ीं, यह सब कुछ आज भी रहस्य है |

जनसामान्य लोग तो इसे आज भी एक कथा, कहानी या मिथक ही समझते है। लेकिन इस बारे में किसी को यह पता नही है, कि यह स्वर्णिम भारत के इतिहास का वह पन्ना जिसे आज तक कोई पढ़कर सुलझा नहीं सका।


राजा विक्रमादित्य की मृत्यु कब और कैसे हुई ?


“राजा विक्रमादित्य" भले ही देवताओं से बढ़कर गुण वाले थे और इन्द्रासन के अधिकारी माने जाते थे, किन्तु वास्तव में वे थे तो मानव ही और जो मनुष्य का जीवन पाया है, उसकी मृत्यु अटल है। क्यों की उन्होंने मृत्युलोक में जन्म लिया था, इसलिए एक दिन उन्होंने अपनी इहलीला त्याग दी। उनके मरने की खबर को सुनते ही सर्वत्र हाहाकार मच गया । उनकी पूरी प्रजा शोकाकुल होकर रोने लगी। और जब अंतिम संस्कार करने के लिए जब उनकी चिता सजी तो, उनकी चिता पर देवताओं ने भी फूलों की वर्षा की।

विक्रमादित्य ने अपने पूरे जीवन काल में पूर्व और पश्चिम से आने वाली बर्बर जातियों को, जिन्होंने भारत वर्ष के अलग-अलग भागों में अपने पाँव जमा लिए थे, उन्हें पूरे भारतवर्ष से उखाड़ फेंका। उन्हें इतनी दूर तक खदेड़ा दिया कि फिर सैकड़ों वर्षों तक उनकी भारतवर्ष की तरफ आँख उठाने की भी हिम्मत नहीं हुई।


राजा विक्रमादित्य की मृत्य के बाद उनके सबसे बड़े पुत्र को सम्राट घोषित करके। उनका धूमधाम से राज तिलक किया गया। मगर सबसे बड़ी अचरज की बात तो यह है, की वह उनके सिंहासन पर कभी भी नहीं बैठ सका। कहते हैं, कि जब भी वह उस सिंहासन पर बैठने जाता, तो कुछ अदृश्य शक्तियां उसे रोक लेती, उसे आगे बढ़ने ही नहीं देती। उसको पता नहीं चला कि पिता की सिंहासन पर वह क्यों नहीं बैठ सकता है। और वह इस बारे में चिंतित रहने लगा लेकिन एक दिन अपने पुत्र के सपने में राजा विक्रमादित्य स्वयं आए और उन्होंने अपने पुत्र को उस सिंहासन पर बैठने के लिए पहले देवत्व प्राप्त करने को कहा।

उन्होंने अपने पुत्र से कहा कि जिस दिन वह अपने पुण्य-प्रताप तथा पुरुषार्थ से उस सिंहासन पर बैठने के योग्य हो जाओगे तो, मैं स्वयं आपको स्वप्न में आकर बता दूंगा। किन्तु विक्रमादित्य उसके सपने में कभी नहीं आए तो उनके पुत्र को नहीं सूझा कि अब इस सिंहासन का क्या किया जाए। तो इस समस्या का हल निकालने के लिए उन्होंने अपने राज्य के विद्वानों से इस बारे में परामर्श लिया। पंडितों और विद्वानों के परामर्श करने के बाद वह एक दिन पिता को स्मरण करके सोया तो राजा विक्रमादित्य उसके सपने में आए।


सपने में उन्होंने उससे उस सिंहासन को ज़मीन में गहरे गड्ढे करके गड़वा देने के लिए कहा और अपने पुत्र को सुझाव दिया की उज्जैन छोड़कर अंबावती में अपनी नई राजधानी बनाने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि जब भी इस पृथ्वी पर कोई सर्वगुण सम्पन्न कोई राजा कालान्तर में पैदा होगा, यह सिंहासन स्वयं धरती से बाहर आएगा और स्वंय उसके पुरुषार्थ से उसके अधिकार में चला जाएगा।

पिता के स्वप्न वाले आदेश को मानकर उसने अगली सुबह ही बिना विलंब किए अपने नौकरदारो को बुलवाकर एक खूब गहरा गड्ढा खुदवाया और उस सिंहासन को उसमें सदैव के लिए गढ़वा दिया। इसके बाद वह खुद अंबावती को अपनी नई राजधानी बनवाकर शासन करने लगा।


सम्राट राजा विक्रमादित्य ने भले ही इस नश्वर संसार को त्याग दिया हो लेकिन आज भी, भगवान् राम के बाद अगर कोई सम्राट भारतीय जन मानस के ह्रदय पर राज करता है, तो वो राजा विक्रमादित्य ही हैं, और कोई नही।


अंततः राजा विक्रमादित्य के स्वर्ण सिंहासन 32 पुतलियों के नाम निम्नलिखित थे? 

1 रत्नमंजरी

2 चित्रलेखा

3 चंद्रकला

4 कामकंदला

5 लीलावती

6 रविभामा

7 कौमुदी

8 पुष्पवती

9 मधुमालती

10 प्रभावती

11 त्रिलोचना

12 पद्मावती

13 कीर्तिमति

14 सुनयना

15 सुंदरवती

16 सत्यवती

17 विद्यावती

18 तारावती

19 रूपरेखा

20 ज्ञानवती

21 चंद्रज्योति

22 अनुरोधवती

23 धर्मवती

24 करुणावती

25 त्रिनेत्री

26 मृगनयनी

27 मलयवती

28 वैदेही

29 मानवती

30 जयलक्ष्मी

31 कौशल्या

32 रानी रूपवती

इन सभी 32 पुतलियों के बारे में हम अगले अध्याय में विस्तार पूर्वक जानेंगे। अभी तक के लिए इतना ही, यह लेख यही पर समाप्त करके आपसे हाथ जोड़कर विदा लेता हूं। फिर मिलेंगे आपसे अगले अध्याय में।🙏

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